अभिनेता का चौला

छोटे और बड़े पर्दे के अभिनेता अपने जीवनकाल में द्वितीय पारी राजनीति के रूप में ही देखते आये है। हमारे सामने कई ऐसे उदाहरण है जो अपने जमाने के उत्तम कलाकार रहे और आगे चलकर उन्होंने राजनीति का दामन थामा। ये बात अलग है कि उनमें से बहुत से तो कदम रखते ही राजनीति को त्याग कर बाहर आ गये और कुछ थोड़ी दूर चलकर, कुछ कलाकार है जो आज भी इस उम्मीद से राजनीति में अपने डकमगाते कदम से चल रहे है कि शायद उनको आगे जाकर कुछ बेहतर करने का मौका मिले, कुछ तो पिछले कई वर्षों से जनता को त्याग कर केवल अपना पद बचने में लगे है उनको जनता से कोई सरोकार नहीं है।
अभिनेता से नेता बने कुछ प्रमुख सिनेजगत से जुड़े नाम इस प्रकार हैः
राज बब्बर, अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, सन्नी देओल, धर्मेन्द्र, स्व. श्री सुनील दत्त, संजय दत्त, रूपा गांगुली, गोविन्दा, कमल हसन, स्मृति ईरानी, जावेद जाफरी, बीना कॉक, स्व. श्री राजेष खन्ना, स्व. श्री विनोद खन्ना, किरन खेर, रवि किषन, हेमा मालीनी, महेष मांजरेकर, भगवन्त मान, उर्मिला मान्तोडकर, नगमा, गुल पनाग, राखी सावंत, मुनमुन सेन, षिल्पा षिन्दे, स्व. श्री दारा सिंह, मनोज तिवारी और अन्य।
हम यहां ये विचार कर रहे है कि क्या अभिनेता एक जिम्मेदार और सच्चा जनता का सेवक बन सकता है। क्या वो राजनीति में आने के बाद उतनी ही जिम्मेदारी से अपना रोल अदा करता है जितना वो पर्दे पर करता रहा था। अगर उपर बताई गई लिस्ट पर नजर डाले तो बहुत से ऐसे कलाकार हमें नजर आयेंगे जो आज राजनीति में या तो मंच पर जाकर अपने डायलॉग बोलने के लिये जाने जाते हैं या राजनीति में इतने असफल रहे कि जनता ने उनको नकार दिया। कई अभिनेता जो नेता बने वो चुनाव जीतने के बाद बमुष्किल अपने निर्वाचन क्षेत्र तक दोबारा जा पाते है जिससे कि जनता का गुस्सा उन पर फूटता है और वे आगे कभी दूसरा चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पाते। इसका सबसे ताजा उदाहरण बीकानेर से चुनाव लड़े धर्मेन्द्र से लिया जा सकता है। गोविन्दा को मुम्बई नार्थ लोक सभा सीट से से बीजेपी के उम्मीदवार के सामने खड़ा किया, वे जीते भी लेकिन कुछ समय बाद ही उन्होंने बोल दिया कि मुझे राजनीति से बाहर आना है। इसे आम जनता क्या समझे, क्या ये राजनेतिक पार्टी को धोका है या जनता को धोखा है।
एक अभिनेता का काम अभिनय करना होता है और वो अभिनय उसको अपने हर क्षेत्र और हर समय करना पड़ता है चाहे वो जनता के बीच में हो या पार्टी के बीच में। अभिनय करना ही उनका पेषा होता है और उनको उसी से संतुष्टि, यष और धन प्राप्त होता है जितना ज्यादा वो अभिनय करते है उतनी ज्यादा उनकी मांग बढती जाती है और पार्टी में उसका कद भी। समय-समय पर इन अभिनेताओं के संवाद आपको सुनने को मिल जाते होंगे जिससे आप अंदाजा लगा सकते है कि वास्तव में ये एक कलाकार ही बोल रहा है ना कि कोई राजनेता। हाल ही में गुजरे कोरोना महामारी के दौरान मनोज तिवारी दिये गये कुछ संवाद और अन्न दान के दौरान खिंचावाई गई कुछ तस्वीरें शायद यही दिखा रही है।
अगर हम ये माने के ये अभिनेता केवल अभिनय की करते हैं तो एक सवाल ये उठता है कि क्या उनको सरकार में उच्च पद या सम्मान देना उचित निर्णय है, क्या वे उस पद या सम्मान की गरीमा को जानते है, क्या वे उस पद या सम्मान पर अपनी जिम्मेदारियों को पूरी कर सकेंगे। आज बहुत से ऐसे उदाहरण हमारे सामने है कि अभिनेताओं को उच्च पद मिला लेकिन वे उसका पूरी तरह से निर्वाह नहीं कर पाये। हाल ही में राष्ट्रपति महोदय से सम्मान प्राप्त कर कंगना रानावत ने जो कुछ भी कहा वो किसी फिल्मी डायलॉग से कम नहीं लगा और पूरे देष में उनकी आलोचना भी की गई।
अभिनेता एक नायक भी होता है और एक खलनायक भी। हमेषा कैमरे और लाइट के सामने रहने वाले अभिनेता की सोच होती है कि वो कुछ ऐसा दिखाये कि देखने वाले मचल उठे या तो वे उसे अत्याधिक प्रेम करने लगे या नफरत और यही उनके अभिनय की जीत होती है। दोनो ही स्थिति में जनता को वास्तविकता से दूर ले जाना होता है और वे इसे भलि भांति निभा रहे होते है। अगर जनता उनके अभिनय को पकड़ ले तो उसके अभिनय का अन्त माना जाता है लेकिन एक समझदार और अनुभवी अभिनेता जनता को अंधेरे में बैठा कर पर्दे और मंच पर अपने अभिनय को भंली-भांति दिखाता रहता है। अब ये जनता को देखना होता है कि वो उसके अभिनय को किस नजरिये से देखे लेकिन चूंकि वो एक कुषल अभिनेता होता है इसलिये बेचारी जनता को इतना सोचने का मौका ही नहीं मिलता और वही होता है जो वो अभिनेता चाहता है।
हमारा कतई ये मत नहीं कि सभी के सभी राजनेता बने अभिनेता जनता के सामने खरे नहीं उतरते हैं जैसे कि अगर हम स्व. श्री सुनील दत्त जी का कैरियर देखें तो 1984 में राजनीति में आने और अपनी अंतिम सांस तक लगातार पांच बार लोकसभा सदस्य मनोनीत कर जनता ने अपना अपार स्नेह दिया और बदले में उन्होंने भी जनता के बीच रह कर उनके दुख-दर्द को अपना समझा।
इसलिये हमारा ये मानना है कि एक अभिनेता को नेता बनाने से पहले हमें ये पहचानना जरूरी है कि जनता के बीच आने से पहले वो अभिनय का चौला उतार कर आ रहा है या उसे पहन कर। चुनाव जीतने और एक नेता की पहचान बनाने के बाद वे जनता के लिये कितना उपलब्ध रहता है। जनता को भी ये समझना पड़ेगा कि एक अभिनेता को नेता बनाने का उनका मकसद क्या सिर्फ उससे फिल्मी डायलॉग सुनना है या अपने क्षेत्र के विकास और दूसरे मुद्दों पर काम करवाना है।
अब्दुल नसीर
एडिटर, राजस्थान द गोल्डन डेजर्ट

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